अंधविश्वास की बात अलग है, लेकिन धार्मिक कर्मकांडों की अपनी अहमियत होती है। अनेक ऐसे धार्मिक कर्मकांडों को विज्ञान ने भी अपनाया है। कई शोधों ने भी इन पर मुहर लगाई है। इस्लाम के सबसे पवित्र महीने रमजान के साथ भी ऐसा ही है। मोहम्मद अली अनवर कहते हैं कि दरअसल सभी धर्मों में ऐसे अनेक धार्मिक कर्मकांड हैं जो मूलतः वैज्ञानिक अवधारणा की उपज हैं, लेकिन उन्हें धर्म से जो़ड़ दिए जाने के कारण लोग ऐसे कर्मकांडों पर ईमानदारी से अमल करते हैं। अली के अनुसार ऐसे कर्मकांडों की रचना मौसम, जलवायु, सेहत और मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर की गई। रमजान भी इनमें एक है।
पटना के कोतवाली स्थित मस्जिद के इमाम मोहम्मद तनाउल मुस्तफा ने बताया कि हॉलैंड के पादरी एल्फ. गॉल ने डायबिटीज, दिल के मरीजों, पेट और साँस की बीमारियों से पीडि़तों को एक महीने का रोजा रखवाया और वह सब स्वस्थ्य हो गए। इंग्लैंड और जर्मनी में हुए ऐसे कई शोधों से साबित हुआ है कि रोजा रखने से जिस्मानी खिंचाव, अवसाद और वजू से आँख, नाक, कान की बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो. ममूर पेलैड ने रोजा के बारे में सुना। वह पेट में कीड़े की बीमारी से परेशान थे। उन्होंने एक महीने का रोजा रखा और उनकी बीमारी खत्म हो गई।
मोहम्मद मुस्तफा कहते हैं कि बदलते परिवेश में लोग बाग सेहत के प्रति और जागरूक हुए हैं और अब रोजा के दौरान तेल और मसालेदार पदार्थों का सेवन कम करते हैं। फल और हरी सब्जियों का उपयोग ज्यादा होता है। पहले गोश्त आदि ज्यादा खाते थे, इससे नुकसान होता था। मुस्तफा ने बताया कि दरअसल रोजा रखने का निहितार्थ ही है बुराई से परे रहना। इस दौरान इसका खास खयाल रखना प़ड़ता है कि बुराई की तरफ जेहन आकर्षित न हो।
अल्लाह के खौफ के कारण रोजा रखने वाले इस पर अमल करते हैं। उन्होंने बताया कि रोजा के दौरान लोग इकट्ठे बैठकर खाते हैं जिससे अमीर-गरीब की खाई पट जाती है और आपस में भाईचारा बढ़ता है। रोजा रखने वालों में रहमदिली भी बढ़ी है। समाजसेवी मोहम्मद आसिफ अली ने बताया कि इस दौरान सभी प्रकार के नशे से खुद को दूर रखना पड़ता है। रोजा रखने से पित्त और लीवर की बीमारी दूर होती है। ऐसा वैज्ञानिक शोधों से भी प्रमाणित हो चुका है। मोहम्मद अली अनवर का कहना है कि चाहे हिंदू धर्म हो या इस्लाम सबमें ऐसे पर्व-त्योहार हैं जिनके वैज्ञानिक पक्ष भी हैं। प्राचीन काल में पहा़ड़ों की गुफाओं और कंदराओं में फकीर और संत तपस्या करते थे। ऐसा इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए किया जाता था। रोजा या व्रत रखने से हमारी इंद्रियाँ नियंत्रण में रहती हैं। इनपर धर्म की मुहर लग जाने से लोग ईमानदारी से इनका निर्वाह करते हैं।
कोई भी व्यक्ति जब उपवास रखता है तो उसका उपवास रखने का मकसद अपने पाचन संस्थान को पूरी तरह से आराम देना है। वैसे भी हमारे पाचनसंस्थान को सिर्फ उपवास रखने के दौरान ही आराम मिलता है क्योंकि रोजाना तो हम लोग पूरे दिन कुछ न कुछ खाकर पेट भर लेते हैं, जिसके कारण हमारे पाचनसंस्थान को बिल्कुल भी फुर्सत नही मिल पाती तथा वह हर समय इस भोजन को पचाने में लगा रहता है। हमारे भारत में तो पुराने समय से ही उपवास को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक उपवास को शरीर और मन को शुद्ध करने का एक जरिया माना गया है। पशु-पक्षी आदि सारे जीवधारियों को उपवास करने की जरूरत पड़ती है जो कि स्वाभाविक है। किसी रोग के होने पर कुछ भी खाना जहर की तरह और उपवास करना अमृत की तरह होता है।
जब किसी व्यक्ति को कोई रोग घेर लेता है तो उसकी भूख अपने आप ही लगना बंद हो जाती है, लेकिन मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी भी प्रकृति के इस आदेश को अनदेखा करके रोगी होने पर भी कुछ न कुछ खाता ही रहता है, नतीजतन रोगी व्यक्ति और भी ज्यादा रोगी हो जाता है। रोग होने पर रोग के कारण शरीर में जमा जहरीले पदार्थों को बाहर निकालने का एक बहुत ही मजबूत साधन उपवास है। उपवास के दौरान शरीर की सारी जीवनीशक्ति सिर्फ रोग को ही दूर करने में लग जाती है और जब तक रोग को समाप्त न कर दें तब तक चैन नहीं लेती।
उपवास शरीर में कोई नई ताकत पैदा करने वाली क्रिया नहीं है लेकिन उसको करने से शरीर में मौजूद जहरीले पदार्थ जिनके कारण व्यक्ति रोगी होता है वे जरूर बाहर निकल जाते हैं और शरीर निरोगी हो जाता है।
इसलिए जो व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ हैं वे भी अगर महीने में या सप्ताह में 1-2 उपवास रख लें तो उनका स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है।
बहुत से लोग सोचते हैं कि उपवास रखना तो पूरे दिन भूखे मरना है, लेकिन उनकी यह सोच बिल्कुल गलत है। शरीर में जहरीले पदार्थों के जमा होने के कारण ही व्यक्ति बीमार होता है, इसके बाद इन जमा पदार्थों से शरीर अपना काम लेने लगता है जो प्रकृति ने उसको खास मौके पर जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल करने के लिए जमा करके रखा हुआ होता है। उपवास रखने पर कमजोरी का यही मतलब होता है, शरीर के जहरीले पदार्थ नष्ट हो रहे हैं और जीवनीशक्ति शरीर का पोषण करने लगती है और शरीर कमजोर हो जाता है। इस समय लगने वाली भूख स्वाभाविक होती है और हमारा मन करता है कि उपवास को तोड़ दिया जाए और भोजन कर लिया जाए। यह उपवास के समाप्त करने की स्थिति है, लेकिन अगर उसके बाद भी उपवास रखा जाए तो शरीर का पोषण शरीर में स्थित उन जरूरी पदार्थों से होने लगेगा, जिनसे हमारे शरीर का संगठन बना हुआ है। उपवास से कोई व्यक्ति तभी मृत्यु को प्राप्त होता है, जब शरीर में मौजूद फालतू पदार्थों के समाप्त होने के बाद उसके शरीर के जरूरी अंग भी नष्ट हो गए होते हैं।
जब तक मनुष्य के शरीर के जरूरी अंगों से पोषण शुरू नहीं होता तब तक मनुष्य सिर्फ कमजोर ही रहता है, लेकिन इन जरूरी अंगों से जब शरीर का पोषण होने लगता है तब समझना चाहिए कि शरीर की समाप्ति होने वाली है। यही अंतर होता है उपवास और भूखे मरने में।
एक बहुत ही मशहूर चिकित्सक ने उपवास और भूखे मरने में इस तरह से अंतर बताया है-
`उपवास´ शुरुआती भोजन छोड़ने से शुरू होकर स्वाभाविक भूख लगने के बाद समाप्त होता है और भूखे मरना स्वाभाविक भूख लगने से शुरू होकर मृत्यु आने पर समाप्त होता है।
उपवास करने से न सिर्फ शारीरिक रोग दूर होते हैं, बल्कि उपवास करने वाले का मन और आत्मा भी शुद्ध हो जाती है, क्योंकि उसका रूख भगवान की तरफ होता है। उपवास शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वच्छता के लिए एक बहुत ही चमत्कारिक उपाय है। लेकिन उपवास का अच्छे तरीक से लाभ वही व्यक्ति उठा सकता है जो उपवास कला को अच्छी तरह से जानता हो। अगर उपवास के बारे में पूरी तरह से जानकारी न हो तो इसका असर शरीर पर उल्टा भी पड़ सकता है। उपवास के नियमों का सही तरीके से पालन न करने के कारण न जाने कितने ही उपवास रखने वालों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है।
विशेष-
बहुत से लोग बोलते हैं कि भोजन कम करना भी उपवास ही कहलाता है, लेकिन यह सोच बिल्कुल गलत है। शोधों द्वारा यह बात साबित हो जाती है कि भोजन की मात्रा कम कर देना और भूख से ज्यादा भोजन न करना अलग-अलग बात है। व्यक्ति को जितनी भूख लगती है और वह उससे कम खाता है तो यह प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत नहीं आता। एक बात और साबित हो चुकी है कि चाहे कोई व्यक्ति कितने ही दिन कम भोजन करें, लेकिन फिर भी उसे कोई खास लाभ नहीं मिल पाता। उपवास रखने के दौरान मनुष्य को शुरुआत के 2-3 दिनों तक ही परेशानी रहती है, लेकिन थोड़ा सा भोजन करने से परेशानी रोजाना समान बनी रहती है। यह बात भी पता चली है कि कम खाने से कमजोरी जल्दी आती है लेकिन उपवास करने से ऐसा कुछ नहीं होता है। इसलिए यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि उपवास करना और थोड़ा भोजन करना एक ही बात नहीं हो सकती।
उपवास के प्रकार-
1. सुबह के समय का उपवास-
यह सबसे ज्यादा आसान उपवास होता है। इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है। इस उपवास को अंग्रेजी में `नो ब्रेकफास्ट सिस्टम´ कहते हैं।
2. शाम के समय का उपवास-
इस उपवास को अद्धोपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में 1 ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता। जिन लोगों को कोई पुराना रोग होता है, वे अगर इस उपवास को करते हैं तो यह उनके लिए बहुत ही लाभकारी होता है। एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि इस उपवास में जो भोजन किया जाता है वह प्राकृतिक और जल्दी पचने वाला होना चाहिए।
3. एकाहारोपवास-
एकाहारोपवास में एक बार के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है जैसे- सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि। शरीर में हल्की सी परेशानी मालूम होने पर इस उपवास को लाभ के साथ किया जा सकता है।
4. रसोपवास-
इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते। सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है। इस उपवास में एनिमा लेते रहने से शरीर की अच्छी तरह से सफाई हो जाती है।
5. फलोपवास-
कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। इस उपवास के दौरान कभी-कभी पेट को साफ करने के लिए एनिमा लेते रहना चाहिए। इस उपवास में किसी-किसी को एक व एक फलाहार अनूकूल नहीं पड़ता और उसके पेट में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों को पहले 2-3 दिनों का पूरा उपवास करने के बाद इस फलोपवास की शुरुआत करनी चाहिए। फलोपवास के समय जो आसानी से पच जाए, उन्हीं फलों का खाने में इस्तेमाल करना अच्छा होता है। अगर फल बिल्कुल ही अनुकूल न पड़ते हों तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए। कहने का मतलब यह है कि फलोपवास में जो साग-सब्जियां या फल अनुकूल पड़े उन्हीं का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि किसी भी तरह का उपवास हो उसमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उपवास करने वाले को बदहजमी नहीं होनी चाहिए।
6. दुग्धोपवास-
दुग्धोपवास को `दुग्धकल्प´ के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है। इस उपवास के दौरान जो दूध पिया जाए वह गाय का ताजा निकाला हुआ दूध ही होना चाहिए।
7. तक्रोपवास-
तक्रोपवास को `मट्ठाकल्प´ भी कहा जाता है। अगर व्यक्ति की भोजन पचाने की क्रिया कमजोर पड़ जाए तो दुग्धोपवास की जगह इस उपवास को करना लाभकारी होता है। इस उपवास में जो मट्ठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वह खट्टा भी कम ही होना चाहिए। तक्रोपवास शुरू करने से पहले अगर 1-2 दिन पूरे दिन का उपवास कर लिया जाए तो ज्यादा लाभ होने के आसार होते हैं। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है। इस उपवास को करने से शरीर के छोटे-मोटे रोग बिल्कुल ठीक हो जाते हैं। अगर इस उपवास को करने के दौरान पेट भारी-भारी सा लगे तो एनिमा जरूर लेनी चाहिए।
8. पूर्णोपवास-
बिल्कुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिल्कुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से सम्बंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।
9. साप्ताहिक उपवास-
पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है। इस उपवास को करने से व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है। जो लोग पूरे दिन आफिस आदि में बैठने का काम करते हैं उनको तो यह उपवास जरूर ही करना चाहिए। अगर उपवास के दिन 1-2 बार एनिमा ले लिया जाए तो यह बहुत अच्छा रहता है। इस उपवास को करने से अरुचि दूर हो जाती है। सिरदर्द, सुस्ती तथा दूसरे कई शारीरिक और मानसिक रोग समाप्त हो जाते हैं।
10. लघु उपवास-
3 दिन से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।
11. कठोर उपवास-
जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।
12. टूटे उपवास-
इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दुबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए। इस उपवास का इस्तेमाल बहुत से भयंकर रोगों में अक्सर किया जाता है।
13. दीर्घ उपवास-
दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है, जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है। यह उपवास जब शारीरिक दृष्टि से किया जाता है, तो इसका लक्ष्य शरीर के अलग-अलग भागों में इकट्ठे हुए जहरीले पदार्थों के बाहर निकालने की ओर ही होते हैं और जब यह मकसद पूरा हो जाता है तो उपवास को तोड़ दिया जाता है। इस तरह का लंबा उपवास बिना तैयारी किए तथा बिना उपवास के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त किए हुए नहीं करना चाहिए। अगर इस तरह के लंबे उपवासों को किसी योग्य उपवास चिकित्सक की देख-रेख में करें तो अच्छा होता है।
पूर्णोपवास का समय-
उपवास करने वाले की प्रकृति, जरूरत तथा उपवास के प्रकार पर निर्भर करता है कि पूर्णोपवास कितने दिनों का होना चाहिए। इसलिए इसका कोई खास नियम नहीं है। कोई भी व्यक्ति 5 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास रख सकता है। दुष्ट और लालची व्यक्ति लंबे समय तक पूर्णोपवास को नहीं रख सकते। इसके विपरीत अच्छे स्वभाव वाले और धार्मिक विचारों वाले व्यक्तियों के लिए ये लंबे उपवास अच्छे असरदार साबित हो सकते हैं। जो लोग हमेशा के लिए अपने स्वास्थ्य को अच्छा रखना चाहते हैं, उन लोगों को सप्ताह में 1 दिन रविवार को, हर महीने की दोनो एकादशियों को तथा साल में 8, 10 या 15 दिनों का पूर्णोपवास करना चाहिए। ऐसा करने से बहुत लाभ होता है। जिन लोगों की सेहत अच्छी होती है, वे लोग उपवास को 7 दिन तक बिना किसी डर के कर सकते हैं और लाभ प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे लोगों को शुरुआत में 2-3 दिनों का उपवास करके उसके कुछ समय के बाद 7 दिनों का या उससे ज्यादा दिनों का उपवास करना चाहिए।
पूर्णोपवास के लिए तैयारी-
उपवास करने के लिए किसी खास तरह की तैयारी करने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि जिस तरह किसी व्यक्ति को भूख लगने पर उसे किसी तरह की तैयारी नहीं करनी पड़ती, उसी तरह कोई सा भी रोग चाहे शारीरिक हो या मानसिक उसको दूर करने के लिए किसी भी प्रकार के विचार-विमर्श की जरूरत नहीं होती। बस इतना जरूर होता है कि उपवास रखने की शुरुआत में मानसिक प्रवृति को थोड़ा शांत और भटकने से रोकने की जरूरत होती है।
लंबे उपवास को शुरू करने से पहले अगर कुछ समय तक सिर्फ प्राकृतिक भोजन पर ही रहकर आतप स्नान, कटि स्नान तथा थोड़े बहुत व्यायाम आदि कर लिए जाने के बाद उपवास शुरू किया जाए तो इससे अच्छे लाभ होने के आसार पैदा हो जाते हैं।
उपवास रखने से पहले यह भी जरूरी है कि उपवास रखने वाला व्यक्ति उपवास के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त कर ले। इससे उस व्यक्ति को उपवास के दौरान ताकत और मन को काबू में रखने की शक्ति प्राप्त होगी। जिससे उपवास करने वाले व्यक्ति का मन डगमगाएगा नहीं। लंबे उपवासों को शुरू करने से पहले व्यक्ति को अपने दिल और नाड़ी की जांच जरूर करा लेनी चाहिए। जो पुराने रोगी होते हैं उन्हें लंबे उपवास शुरू करने से पहले अपने रोजाना करने वाले भोजन में थोड़ा बहुत बदलाव कर देना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे लंबे उपवास रखें जैसे पहले उपवास में सिर्फ सुबह का ही भोजन छोड़ दें और सिर्फ शाम को ही भोजन खाएं। फिर 2-3 दिन के बाद अन्न खाना बिल्कुल बंद करके सिर्फ फल पर ही रहें। फिर 2-3 दिन तक सिर्फ फलों को खाने के बाद पूरे दिन का उपवास शुरू कर दें। ऐसा करने से उपवास के दौरान व्यक्ति को किसी तरह की परेशानी सामने नहीं आएगी।
विशेष-
बहुत से लोगों के मन में उपवास को लेकर हमेशा एक सवाल तो आता ही है कि उपवास किस मौसम में करना ज्यादा लाभकारी होता है। इसके लिए सिर्फ इतना कहना काफी है कि उपवास कब करना है या कब नहीं करना है यह सिर्फ जरूरत पर ही निर्भर करता है। जब भी लगे कि आपके शरीर को उपवास की जरूरत है तब ही उपवास रखना शुरू कर देना चाहिए। फिर भी बहुत से लोग होते हैं जिन्हें गर्मी के मौसम में उपवास करना ज्यादा मुश्किल लगता है और वह सर्दियों के मौसम को उपवास के लिए अच्छा मानते हैं। वैसे तो प्राकृतिक चिकित्सकों के मुताबिक लंबे उपवास के लिए सबसे अच्छे मौसम गर्मी और बसन्त ऋतु के हैं।
पूर्णोपवास के समय में-
जब तक किसी भी व्यक्ति का पूर्णोपवास चलता रहे तब तक निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना जरूरी है-
पानी पीना-
उपवास के दौरान किसी भी तरह का भोजन नहीं खाना चाहिए, लेकिन ताजा और साफ पानी जरूर पीना चाहिए। पूरे दिन में कम से कम 8 से 10 लीटर पानी पिया जा सकता है। पानी को थोड़ा-थोड़ा करके कई बार में पिया जा सकता है। अगर मन करता है तो पानी में कागजी नींबू को मिलाकर भी पिया जा सकता है। ऐसा करने से शरीर की सफाई अच्छी तरह से हो जाती है। उपवास के दौरान पानी न पीने से शरीर को नुकसान होने की आशंका रहती है। इसलिए उस समय शरीर को पूरी मात्रा में नियमित रूप से पानी मिलना चाहिए नहीं तो शरीर में पानी की कमी होने के कारण आंतें भी सूख सकती हैं और रक्तप्रवाह में भी रुकावट पैदा हो सकती है। इसके अलावा उपवास के दौरान पानी कम पीने या न पीने से शरीर के अन्दर गर्मी भी बढ़ सकती है। जिससे उपवास करने वाले व्यक्ति को परेशानी हो सकती है।
एनिमा-
उपवास काल के दौरान जितना पानी पीना जरूरी है उतना ही जरूरी एनिमा लेना भी है। उपवास के दौरान एक तरह से आंतें अपना काम बंद कर देती हैं, इसलिए उन्हें दूसरे तरीके से रोजाना साफ करते रहना भी जरूरी है।
बहुत से लोगों की सोच होती है कि जब उपवास करते हैं तब खाना तो खाया नहीं जाता तो शौच क्रिया कहां से होगी? क्योंकि पहला तो आतें कभी भी मल से खाली नहीं होती, दूसरे भोजन न करने पर आंतों में जो स्वाभाविक क्रिया होती रहती है उसके नतीजतन पैदा होने वाले मल को साफ करने की जरूरत तो पड़ेगी ही। इसलिए उपवास के दौरान रोजाना कम से कम से कम एक बार एनिमा क्रिया के द्वारा आंतों को साफ रखना भी जरूरी है। एनिमा लेने का पानी हल्का गर्म होना चाहिए। वैसे तो ठंडे पानी का एनिमा भी लिया जा सकता है। एनिमा के पानी में थोड़ी सी बूंदे कागजी नींबू के रस की भी मिलाने से पेट की अच्छी सफाई हो जाती है।
स्नान-
उपवास रखने के दिनों में रोजाना ठंडे पानी से नहाना जरूरी है। अगर रोजाना दूसरे दिन एक उदरस्नान या मेहरस्नान कर लिया जाए तो बहुत अच्छा होता है। उपवास काल में त्वचा को साफ, स्वस्थ और सतेज रखना भी बहुत जरूरी है। इसलिए इन दिनों में कभी-कभी पूरे दिन शरीर पर गीली मिट्टी की पट्टी रखना भी बहुत उपयोगी होता है। अगर उपवास लंबा होने के कारण व्यक्ति रोजाना स्नान नहीं कर सकता तो उसे कम से कम रोजाना गर्म पानी में किसी तौलिए को भिगोकर और निचोड़कर अपने पूरे शरीर को अच्छी तरह से रगड़कर पोंछना चाहिए।
व्यायाम-
बहुत से लोग उपवास के दौरान सारे कामों को पीछे छोड़कर आराम करने के मूड में रहते हैं, लेकिन यह बात बिल्कुल सही नहीं है। उपवास करने पर भी अपनी ताकत के अनुसार कोई न कोई काम करते रहना जरूरी होता है। पुराने रोगों में अच्छा स्वास्थ्य पाने के लिए उपवास रखने पर भी अपना छोटा-मोटा काम तो करते रहना ही चाहिए और ऊपर से व्यायाम आदि भी करते रहना चाहिए। अगर इतना कुछ न किया जाए तो कम से कम टहलने तो जा ही सकते हैं। बस एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि उपवास काल में शरीर थकने न पाए, क्योंकि शरीर में से ज्यादा ताकत कम हो जाने पर की हुई मेहनत से शरीर को फायदे के स्थान पर नुकसान ज्यादा पहुंचाता है। ऐसे व्यक्तियों को भी घूमने-फिरने, चलने-फिरने तथा हल्के-फुल्के व्यायाम आदि करने से कभी भी भागना नही चाहिए। उपवास रखने के दौरान अगर उपवास करने वाला व्यक्ति एक बार लेट गया और उठ ना पाए तो उसको बिस्तर पर पड़े-पड़े ही अपने शरीर के हर अंग में हरकत करके व्यायाम आदि कर लेना चाहिए।
जानकारी-
एक बात जाननी जरूरी है कि जो व्यक्ति शरीर से दुबले-पतले होते हैं या उनमें कमजोरी ज्यादा होती है, उपवास के दौरान सिर्फ उन्हीं को चारपाई पर पड़े रहना जरूरी है।
आराम-
उपवास रखने के दौरान उपवास रखने वाले व्यक्ति को व्यायाम करने के साथ ही पूरा आराम करने की भी जरूरत होती है। जो व्यक्ति बहुत ज्यादा कमजोर होते हैं उनको तो कभी-कभी पूरे दिन आराम करना जरूरी हो जाता है। उपवास के दिनों में शरीर को जितना ज्यादा आराम दिया जाए, अगर उपवास के बाद भी उसे उतना ही आराम दिया जाए तो उपवास से किसी तरह की हानि नहीं हो सकती। उपवास में अगर व्यक्ति पूरी नींद सो सके तो अच्छा रहता है।
मानसिक स्थिति-
उपवास के दौरान एक बात का ध्यान रखना खासतौर पर जरूरी है कि उपवास करने वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति शांत और एक जगह स्थिर रहे। इसके लिए सबसे जरूरी है कि उपवास करने वाले व्यक्ति को उपवास काल में अपने मन को शांत करने के लिए भगवान की भक्ति में मन को लगाना चाहिए। वैसे भी किसी महान पुरुष ने यह कहा है कि अगर शरीर के उपवास के साथ-साथ मन का उपवास न रखा जाए तो वह किसी तरह से व्यक्ति के लिए लाभकारी नहीं हो सकता। इसलिए उपवास रखने पर हमेशा खुश, तनाव रहित रहना चाहिए।
उपचार-
उपवास करने के दौरान किसी भी तरह की औषधियां नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ये शरीर को नुकसान पहुंचा सकती हैं क्योंकि इस उपवास के समय तथा उसके बाद काफी दिनों तक शरीर बहुत ही नाजुक अवस्था में रहता है। उपवास काल में किसी रोग के होने पर सीधे ही प्राकृतिक उपचारों का सहारा लेना चाहिए। यह उपचार पेड़ू पर गीली मिट्टी की पट्टी रखने से, उदर स्नान करने से, तथा कपड़े की ठंडी पट्टी आदि रखने से होते हैं। उपवास करने वाले व्यक्ति को पूरी तरह खुली हवा में रहना और सोना चाहिए। सुबह के समय कपड़े उतारकर कुछ देर तक धूप में बैठना चाहिए। उपवास के दौरान व्यक्ति का शरीर का तापमान कम करने पर या शरीर के अलग-अलग भागों में रक्तसंचार की क्रिया बढ़ाने के लिए प्राकृतिक मालिश की क्रिया सबसे अच्छी रहती है ।
पूर्णोपवास को कब और कैसे तोड़ा जाए?-
यह बात तो सभी अच्छी तरह जानते होंगे कि उपवास रखने के साथ ही उपवास को तोड़ने में भी बहुत सावधानी और आत्मसंयम की जरूरत होती है। उपवास काल के दौरान पाचनशक्ति बहुत ज्यादा कमजोर हो जाती है। इसलिए उपवास को तोड़ते समय बहुत ही हल्का भोजन खाना चाहिए। उसके बाद पाचनशक्ति जैसे-जैसे बढ़ने लगे, वैसे ही भोजन की मात्रा भी थोड़ी-थोड़ी करके बढ़ाते रहनी चाहिए। इस तरह उपवास को सही तरीके से तोड़कर उपवास रखने वाला व्यक्ति न सिर्फ शारीरिक परिवर्तन होने के खतरे से बच सकता है बल्कि उपवास का पूरा-पूरा लाभ भी उसको मिल सकता है। एक सिद्धांत के मुताबिक उपवास जितना लंबा होता है, उतनी ही ज्यादा सावधानी उस उपवास को तोड़ते समय रखनी पड़ती है।
उपवास तोड़ने के समय ज्यादातर तरल पदार्थ लेना शरीर के लिए बहुत लाभकारी होता है। इसका कारण यह है कि उपवास के दौरान हमारी आंते तरल पदार्थ लेने की आदी हो जाती हैं। इसलिए तरल भोजन लेने पर उन पर ज्यादा भार नहीं पड़ता और उसे पचाने में भी आसानी रहती है। एक बात का ध्यान रखना और जरूरी है कि तरल भोजन के साथ भोजन हल्का और सादा भी होना चाहिए।
अगर कोई व्यक्ति एक दिन का उपवास रखता है तो शाम के समय उस उपवास को तोड़ने के लिए पहले थोड़ा-थोड़ा सब्जियों का रस, फलों का रस और पकी हुई सादी सब्जियां आदि लेनी चाहिए। उसके बाद धीरे-धीरे अन्न और भोजन पर आ जाना चाहिए। इस बात का ध्यान रखें कि जब पहले का किया हुआ भोजन पच जाए तभी दूसरा भोजन खाया जाए। उपवास चाहे कोई भी हो, उसको तोड़ने के बाद कभी भी भोजन के न पचने का रोग नहीं होने देना चाहिए।
2-3 दिनों का उपवास रखने के बाद चौथे दिन सिर्फ 3 बार थोड़ा सा सब्जियों का सूप या फलों का रस पीना चाहिए। पांचवे दिन एक बार रस या सूप और 2 बार सादी पकी हुई सब्जी भी खानी चाहिए। छठे दिन 3 बार पकी हुई साग-सब्जी खानी चाहिए और सातवें दिन एक बार के भोजन में रोटी-सब्जी खानी चाहिए तथा इसके बाद रोजाना के भोजन पर आ जाना चाहिए।
लंबे उपवासों में तरल खाने वाले पदार्थ जितना लंबा उपवास हो उसके तिहाई समय तक चलने चाहिए। उसके बाद रोजाना या दूसरे दिन एक बार बहुत हल्का भोजन, ताजे फल या साग-सब्जी को खाना भी शुरू कर सकते हैं। इन दिनों भी दूसरा भोजन फलों के रस या सब्जी के सूप का ही होना चाहिए।
उपवास को कब समाप्त किया जाए?-
एक बात बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उपवास को कब समाप्त किया जाए? कोई भी व्यक्ति जब उपवास रखता है तब यह बात कोई ठीक तरह से नहीं बता सकता कि उसे कितनों दिनों तक उपवास रखना है और उपवास तोड़ना है। इस बात का पता तो हमको उपवास के अंत में उपवास करने वाले की प्रकृति द्वारा ही मिलता है, अर्थात उपवास के समाप्ति में जब व्यक्ति को निम्नांकित महसूस होने लग जाए, तभी व्यक्ति को समझना चाहिए कि उसका उपवास पूरा हो गया और उसे समाप्त करने का समय आ गया है।
- जब व्यक्ति को अपने आप ही बहुत तेज भूख लगने लगे तब समझना चाहिए कि उपवास को तोड़ने का समय आ गया है।
- उपवास के दौरान उपवास करने वाले व्यक्ति की जीभ पर जो सफेद मैल जम जाता है जब वह साफ हो जाए तो समझिए कि उपवास को समाप्त करने का समय आ गया है।
- जब लेने वाली सांस मीठी-मीठी सी महसूस होने लगे।
- नाड़ी की रफ्तार जब बिल्कुल ठीक तरह से चलने लगे।
- शरीर में खून का प्रवाह सही तरह से चलने के कारण जब त्वचा मुलायम और लचीली हो जाए।
- शरीर का तापमान बिल्कुल सामान्य हो जाए।
- जब व्यक्ति का शरीर बिल्कुल ही हल्का-फुल्का सा लगने लगे उसके अंदर नई तरह की चुस्ती-फर्ती लगने लगे।
पूर्णोपवास के बाद-
कोई भी व्यक्ति जब उपवास करता है तो उसे उपवास की समाप्ति के बाद बड़ी ही तेज भूख लगती है, लेकिन उस वक्त व्यक्ति को बड़े ही सब्र से काम लेना चाहिए और ज्यादा नहीं खाना चाहिए। भोजन के हर ग्रास को अच्छी तरह धीरे-धीरे चबाकर खाने से तथा जीभ को अपने काबू में रखने से भूख पर काबू पाया जा सकता है। अगर उपवास तोड़ने के बाद भूल से कोई गलती हो जाए और उस गलती के कारण शरीर के दुबारा रोगी हो जाने के आसार लग रहे हों तो उस गलती का प्रायश्चित करने के लिए दुबारा उपवास कर लेना चाहिए। उपवास के बाद ऐसा भोजन नहीं खाना चाहिए कि जिससे शरीर को रोगी होने का खतरा हो बल्कि प्राकृतिक और सादा भोजन खाना चाहिए। अगर कोई भी व्यक्ति चाहे तो प्रकृति की मदद से अच्छे स्वास्थ्य का लाभ उठा सकता है। अगर उपवास, उपवास के नियमों के मुताबिक ठीक तरीके से किया जाए तो किसी भी मोटे व्यक्ति का वजन रोजाना लगभग 1 पौंड के बराबर कम होगा और उपवास तोड़ने के बाद वजन बढ़ने की औसत उससे आधी ही होगी।
पूर्णोपवास का शरीर पर असर-
पाचनसंस्थान-
जिस तरह से कोई व्यक्ति ज्यादा खाना खा लेता है और उसके बुरे नतीजे आमाशय को भुगतने पड़ते हैं उसी तरह उपवास रखने का अच्छा असर भी सबसे पहले आमाशय पर ही नज़र आता है। उपवास करने वाले व्यक्ति को उपवास के दूसरे या तीसरे दिन बहुत ही तेज भूख लगती है। जब यह आन्तरिक भूख परेशान करना बंद कर देती है तब शरीर के अन्दर से जहरीले पदार्थों का निकलना शुरू होता है और यह अवस्था जहर की मात्रा के अनुसार 3-4 दिनों तक बनी रहती है। कभी-कभी यह अवस्था 15 दिनों तक भी देखी जाती है। शरीर के अन्दर से जहरों के बाहर निकलने के कारण व्यक्ति को जीभ मैली, सांस में बदबू और भूख न लगना जैसी परेशानियां आ जाती हैं। शरीर में जहर के कम होने के कारण इस समय रोग का असर भी कम हो जाता है और असली भूख भी लगने लगती है, जीभ साफ हो जाती है और शरीर हल्का सा महसूस होने लगता है।
उपवास का हमारे शरीर की आंतों पर बहुत ज्यादा असर पड़ता है। अगर किसी व्यक्ति की आंतों में मल सड़ जाता है तो उसे दस्त, गठिया, और पेचिश जैसे रोग घेर लेते हैं। आंतों में नया अन्न रस न पहुंचने के कारण उसके सेलों को कम काम करना पड़ता है जिससे उसकी खोई हुई ताकत दुबारा आ जाती है। आंते शरीर के अन्दर से मल को निकालने लगती हैं तथा आंतों में पैदा हुई हवा शोषित हो जाती है और आंतों में मल को ढकेलने की ताकत कम होने के कारण कुछ दिनों बाद मल अपने आप नहीं निकल पाता और उसको निकालने के लिए एनिमा क्रिया का सहारा लेना पड़ता है। जिस समय आंतों में से पूरा मल बाहर निकल जाता है उसके बाद शरीर के स्नायुओं का नाश होने लगता है जिसके कारण शरीर का वजन कम हो जाता है।
मलत्याग-
आंतों में ज्यादा दिनों तक मल के रुके रहने से मल सख्त हो जाता है और उसको बाहर निकलने में बहुत परेशानी होती है। कई बार मल को बाहर निकलने के समय बहुत तेज दर्द और कभी-कभी खून भी आ जाता है। इसलिए एनिमा का इस्तेमाल भी करना जरूरी होता है। अगर उपवास शुरू करने से पहले साधारण भोजन किया जाए तो पहले दिन और दूसरे दिनों की तरह ही बराबर मल आएगा। लेकिन 2-3 दिन बाद मल का आना बंद हो जाता है, तब उसे अगर एनिमा क्रिया द्वारा बाहर न निकाला जाए तो उसके बुरे नतीजे हो सकते हैं।
रुधिर संस्थान-
जब हम लोग भोजन करते हैं तो वह भोजन शरीर में पचने के बाद गर्मी पैदा करता है। जिस तरह किसी इंजन में कोयला, पेट्रोल या डीजल की जरूरत होती है, उसी तरह शरीर को चलाने के लिए भोजन की जरूरत होती है। भोजन हमारे शरीर में ईंधन का काम करते हुए शरीर के तापमान को स्थिर रखता है। इसलिए जब हम भोजन नहीं करते हैं तो हमारे शरीर की गर्मी कम हो जाती है।
विशेष-
एक बहुत ही मशहूर डॉक्टर भोजन और तापमान के सम्बंध में इसके बिल्कुल विपरीत सोचता है। उनका मानना है कि उपवास शुरू करने के 4 दिन बाद तक भी शरीर के तापमान में कोई फर्क नहीं आता और उसके बाद भी तापमान कभी-कभी उपवास के साथ बढ़ता रहता है। इस प्रकार प्रकृति के नियमों के विरुद्ध इस प्रक्रिया का होना बहुत ही आश्चर्य की बात है।
नाड़ी-
उपवास रखने के दौरान नाड़ी में अलग-अलग प्रकार के बदलाव होते देखे जाते हैं। इसलिए चिकित्सक इस बारे में अभी तक किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। उपवास की कुछ अवस्थाओं में नाड़ी साधारण रहती है, लेकिन कुछ अवस्थाओं में इसके चलने की रफ्तार कम हो जाती है। लगभग 64 प्रतिशत लोगों में नाड़ी की गति सामान्य ही पाई गई है तथा 36 प्रतिशत व्यक्तियों में कम और किसी-किसी मामले में यह गति बढ़ी हुई भी पाई गई है।
खून-
उपवास रखने के दौरान उपवास रखने वाले व्यक्ति के खून में अलग-अलग बदलाव देखे जाते हैं। एक डाक्टर ने जब ऐसे व्यक्ति की जांच की तो पाया कि उसके खून में रक्ताणुओं की संख्या बढ़ी हुई थी। लेकिन इससे भी आगे बढ़कर एक डॉक्टर ने उपवास के समय उपवास रखने वाले व्यक्ति के खून में निम्नांकित बदलाव देखे।
- कुछ समय तक उस व्यक्ति के खून में रक्ताणुओं की संख्या कम होने के बाद दुबारा बढ़नी शुरू हो जाती है।
- उपवास के बढ़ने के साथ श्ववेताणुओं की संख्या कम हो जाती है।
- व्यक्ति के खून में इओसिनौफिल्स तथा पोलीन्यूक्लियर की संख्या कम होती जाती है।
जानकारी-
इसके अलावा आंतों में से जो आन्त्र-रस खून में चला जाता है वह धीरे-धीरे मल को पकाकर बाहर निकालने लगता है। इसलिए आन्त्र-रस से पैदा हुए आमवात (गठिया) आदि रोग ठीक हो जाते हैं। इसके अलावा आंतों में मल के जमा होने से खून का दबाव बढ़ जाता है, लेकिन यह उपवास के समय आंतों के साफ होने से कम होने लगता है, जिसके कारण दिल की अतिवृद्धि कम होती जाती है, तथा दिल पर जो चर्बी पैदा हो गई होती है, वह ईंधन बनकर जल जाती है। नतीजतन दिल का दौरा होने का डर कम हो जाता है।
जिगर-
अक्सर जो व्यक्ति ज्यादा भोजन करते हैं उनको जिगर के बढ़ने या उसमें रोग होने के आसार पैदा हो जाते हैं, क्योंकि इस समय जिगर को स्वाभाविक रूप से ज्यादा काम करना पड़ता है। उपवास रखने के दौरान जिगर के सेल ज्यादा उत्तेजित हो जाते हैं जिससे पित्त ज्यादा निकलता है, आंतों में जमा हुआ मल ठीक तरीके से पकने लगता है, मल का रंग, पीला, मटियाला हो जाता है और वह आसानी से निकल जाता है। पित्त के ज्यादा निकलने के कारण व्यक्ति को भोजन हजम न होना, कब्ज होना, दस्त आना जैसे रोगों को उपवास रखकर ठीक किया जा सकता है।
मूत्र संस्थान-
आमाशय से पैदा हुए जहर को खून द्वारा शरीर में फैलाकर वाद को किडनी के द्वारा बाहर निकालते हैं। इनमें सबसे प्रमुख यूरिया होता है। अगर यह यूरिया शरीर से बाहर न निकले तो उसका नतीजा बुरा हो सकता है।
कुछ चिकित्सक तो सिर्फ यूरिया के शरीर से निकलने की मात्रा से ही शरीर की वृद्धि तथा कमी का अनुमान लगाते हैं। जिस समय व्यक्ति में खून में यूरिया की मात्रा ज्यादा हो जाती है, उस समय किडनी को आराम मिल जाता है, क्योंकि उस स्थिति में नए जहरीले पदार्थ पैदा होकर शरीर में प्रवेश नहीं करते। किडनी यूरिया को शरीर में से ज्यादा मात्रा में उस समय तक निकालती रहती है जब तक कि उसकी फालतू मात्रा बाहर नहीं निकल जाती। इसके बाद धीरे-धीरे यूरिया की मात्रा कम होने लगती है, जिससे पता चलता है कि अब हमारा शरीर कमजोर होने लगा है, लेकिन इस तरह की कमजोरी आने से पहले शरीर में कई बार चुस्ती-फुर्ती भी महसूस होती है।
एक चिकित्सक के अनुसार-
हमारे शरीर में कोई सी भी क्रिया तभी शुरू होती है जब कि हमारा किया हुआ भोजन पूरी तरह से पच जाता है।
अर्थात–
शरीर के पाचकरस उस समय तक शारीरिक स्नायुओं को नष्ट करने लगते हैं और यूरिया पेशाब के रास्ते बाहर निकलने लगते हैं।
मूत्र (पेशाब)-
अगर उपवास के दिनों में पानी कम पिया जाए तो व्यक्ति को पेशाब भी कम ही आता है, लेकिन अगर पानी का इस्तेमाल सही किया जाए तो पेशाब की मात्रा साधारण के बराबर या उससे थोड़ा कम ही होती है, लेकिन उपवास के पहले दिन पेशाब की मात्रा साधारण अवस्था की मात्रा के बराबर ही होती है। पेशाब की प्रतिक्रिया आम्लिक होती है। घनत्व 1015 से 1025 तक होता है। पेशाब में ठोस पदार्थों की मात्रा 40 ग्राम से ज्यादा नहीं होती है।
त्वचा-
हमारे शरीर में त्वचा के 3 काम होते हैं- शरीर की रक्षा करना, संवेदनाओं को दिमाग तक पहुंचाना, शरीर के अन्दर से जहर को बाहर निकालना। हमारे फेफड़े जितना जहर को बाहर निकालते हैं, उतना ही जहर त्वचा भी बाहर निकाल देती है। जब किसी व्यक्ति के ज्यादा भोजन खाने के नतीजतन त्वचा के नीचे ज्यादा चर्बी जमा हो जाती है, तब त्वचा के वे छिद्र जिनमें से पसीना बाहर निकलता है, वे बंद हो जाते हैं, जिसकी वजह से त्वचा द्वारा पसीने के रूप में यूरिया आदि शरीर के अन्दर के जहरीले पदार्थ बाहर निकलना बंद हो जाते हैं। उपवास रखने से त्वचा के नीचे स्थित श्रमबिन्दु और ग्रंथियां अपने असली काम को करना शुरू कर देती हैं, जिससे शरीर के अन्दर का सारा जहर यूरिया आदि बाहर निकलना शुरू हो जाता है। इसी कारण से उपवास करने वाले व्यक्ति को जब पसीना आता है तो उसमें से बहुत तेज बदबू आती है। शरीर में जमा चर्बी शरीर के लिए ईंधन का काम करती है, जिससे पसीने की नलिकाएं खुल जाती हैं। ज्यादा पसीना आने से त्वचा नर्म और चिकनी हो जाती है और इस तरह पसीने के व्यक्ति के शरीर में रुकने से पैदा होने वाले रोग समाप्त हो जाते हैं।
स्नायु संस्थान-
शरीर का सबसे मुख्य संस्थान `स्नायु संस्थान´ होता है। अगर इस संस्थान के अन्दर किसी तरह की परेशानी आती है तो शरीर में कोई न कोई रोग जरूर पैदा हो जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक इसको `वात रोग´ कहा जाता है और यह भी माना जाता है कि `वात´ के दूषित होने से ही शरीर में सारे रोग पैदा होते हैं। (वाग्भट्ट/9-85-सूत्र-संस्थान´)। इसका पोषण खून के द्वारा होता है। इसलिए खून के खराब हो जाने पर इसका सबसे बुरा असर मनुष्य की दिमागी शक्तियों पर पड़ता है, जिससे उनकी कमी होने लगती है। जिससे मनुष्य दिमागी काम जैसे पढ़ना-लिखना, सोचना-समझना तथा कुछ याद रखना आदि नहीं कर सकता।
उपवास रखने से व्यक्ति का खून साफ हो जाता है, जिससे दिमाग पर से जहर का असर समाप्त हो जाता है और व्यक्ति की दिमागी शक्तियां दुबारा बढ़ जाती हैं। इस तरह स्नायु संस्थान के रोग भी उपवास करने से ठीक हो जाते हैं।
वजन-
अगर कोई बिल्कुल स्वस्थ व्यक्ति उपवास करता है तो शुरुआत के 1-2 दिनों तक उसके वजन में कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर कोई मोटा और रोगी व्यक्ति उपवास करें तो 2-3 दिन के बाद उसका वजन लगभग 5 पौंड तक कम हो जाता है। उसके बाद रोजाना व्यक्ति का 1 पौंड वजन कम हो जाता है। अगर किसी साधारण से रोग में उपवास करा जाए तो रोजाना 1 पौंड के लगभग वजन कम होता है।
श्वास-संस्थान-
उपवास रखने के दौरान श्वास-संस्थान में अलग-अलग बदलाव देखे जाते हैं, लेकिन जो बदलाव देखे जाते हैं वे लगभग सारे उपवास करने वाले व्यक्तियों में समान रूप से मौजूद होते हैं। उपवास रखने के दौरान शुरुआती 2-3 दिनों तक सांस में से बहुत तेज बदबू आती है जो शरीर से जहर और गंदगी निकलने का संकेत देती है, लेकिन लगभग 5-6 दिन बाद पहले की ही तरह सांस चलने लगती है जिससे पता चलता है कि शरीर की सफाई हो गई है।
उपवास काल के दौरान रोग और चिकित्सा-
उपवास रखने के समय में कभी-कभी व्यक्ति को बहुत ज्यादा परेशानी होती है जिससे डरकर बहुत से लोग तो उपवास को बीच में ही तोड़ देते हैं। लेकिन ऐसा करने से उनकी परेशानियां और भी बढ़ जाती हैं-
मूर्च्छा (बेहोशी)-
उपवास काल के दौरान अगर किसी व्यक्ति को बेहोशी आ जाती है तो यह इस कारण से क्योंकि उस समय व्यक्ति के दिमाग में खून का प्रवाह सही तरह से नहीं होता। इस बेहोशी को दूर करने के लिए रोगी को बिल्कुल सीधा लिटाकर उसकी टांगों को थोड़ा ऊंचा कर देना चाहिए, जिससे व्यक्ति के दिमाग में खून पहुंच सके। बेहोशी की हालत में कभी भी रोगी को खड़ा नहीं करना चाहिए, नहीं तो उसकी मौत भी हो सकती है।
चक्कर आना-
किसी व्यक्ति के चक्कर आने की चिकित्सा बिल्कुल बेहोशी की तरह ही है, लेकिन चक्कर कभी-कभी सिर में खून ज्यादा हो जाने से भी आ जाते हैं। किसी व्यक्ति को चक्कर आने पर रोगी के सिर को ऊंचा रखना चाहिए, इसके साथ ही व्यक्ति को खुली हवा में रहकर आराम करना चाहिए।
दिल में दर्द-
उपवास रखने के दौरान आमाशय में मल जमा हो जाने से तथा आमाशय के रोगों के कारण अक्सर दिल में दर्द होने लगता है। ये लक्षण धीरे-धीरे खुद ही मिट जाते हैं।
सिरदर्द-
कोई व्यक्ति जब उपवास रखता है तो उसको शुरूआत में सिरदर्द होने लगता है, लेकिन यह कुछ देर के बाद अपने आप ठीक हो जाता है।
अतिसार (दस्त)-
वैसे तो उपवास रखने के दौरान किसी भी व्यक्ति को दस्त बहुत कम लगते हैं लेकिन अगर किसी कारण से ये लग भी जाएं तो उसकी चिकित्सा तुरंत ही करा लेनी चाहिए।
मूत्रावरोध (पेशाब आने में रुकावट होना)-
उपवास करने के दौरान उपवास करने वाला व्यक्ति अगर बहुत ज्यादा पानी पिए लेकिन उसको पेशाब न आए तो उसको अक्सर मूत्रावरोध (पेशाब आने में रुकावट होना) का रोग हो जाता है। इसको ठीक करने के लिए व्यक्ति को ठंडा मेहनस्नान या पेड़ू पर गर्म और ठंडा स्प्रे देना चाहिए।
नाड़ी (नब्ज) का धीरे-धीरे चलना-
उपवास रखने पर अक्सर उपवास रखने वाले व्यक्ति की नाड़ी के चलने की रफ्तार कम हो जाती है, लेकिन इससे डरने की कोई बात नहीं है, क्योंकि यह खतरनाक नहीं होता। थोड़ा बहुत व्यायाम करने से या गर्म पानी से नहाने से इसकी रफ्तार सही हो जाती है। इसमें मालिश करने से भी बहुत लाभ होता है।
नाड़ी (नब्ज) का तेज चलना-
जब कोई व्यक्ति लंबा उपवास करता है तो अक्सर उसकी नाड़ी तेज-तेज चलने लगती है, जो बहुत खतरनाक होती है। इसका उसी समय इलाज करना जरूरी है। एक डॉक्टर के मुताबिक ऐसी स्थिति में ठंडे पानी से स्नान करने से दिल उत्तेजित होता है, इसलिए रोगी को ठंडे पानी से स्नान नहीं करना चाहिए। ऐसी हालत होने पर रोगी को गर्म पानी से स्नान कराना लाभदायक होता है। लेकिन यह पानी भी ज्यादा गर्म नहीं होना चाहिए, बस शरीर के तापमान के बराबर ही होना चाहिए। पेडू़ पर ठंडे पानी की पट्टी रखने से, सिर को ठंडा और पैरों को गर्म रखने से भी लाभ होता है। इस रोग में ताजी हवा रोगी को खिलाने से भी लाभ होता है।
वमन (उल्टी)-
उपवास रखने के दौरान सबसे खतरनाक रोग है, उपवास रखने वाले व्यक्ति को उल्टी होना। अगर ऐसा किसी व्यक्ति के साथ उपवास रखने के दौरान होता है तो उसे बहुत सारा गर्म पानी पिलाना चाहिए ताकि उसके आमाशय में जमा उत्तेजक पदार्थ जल्दी से बाहर निकल सकें। अगर ऐसा करने से कोई लाभ न हो तो, रोगी को ठंडा और गर्म स्नान करना चाहिए। अगर इस प्रयोग से लाभ न हो तो रोगी को पानी में ग्लिसरीन मिलाकर पिलाने से उल्टी आने का रोग दूर हो जाता है।
रोग-आरोग्य और उपवास-
अगर कोई कहता है कि रोगों को दूर करने के लिए उपवास रखने का नियम उतना ही ज्यादा पुराना है जितना कि खुद मनुष्य जाति तो यह बात गलत नहीं होगी। बहुत से धार्मिक ग्रंथों में इसके सबूत मिल जाते हैं।
एक चिकित्सक के मुताबिक-
`अन्न´ को त्यागने से ही बहुत से रोग बिना किसी खतरे के दूर हो जाते हैं।
हमारे शरीर के अन्दर रोजाना जो क्रियाएं होती हैं, उनमें शरीर के बेकार और हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने की एक बहुत ही खास क्रिया हर समय ही चलती रहती है। इस शरीर रूपी मशीन को सही तरीके से चलाने का जिम्मा सबसे ज्यादा शुद्ध खून पर होता है। खून के लाल कण (आर.डब्ल्यू.सी.) नये कोषों की रचना करते रहते हैं और सफेद कण (डब्ल्यू.बी.सी.) शरीर के नुकसानदायक या बेकार पदार्थ को बाहर निकालने का काम करते रहते हैं। शरीर में ज्यादा मात्रा में जमा हुए मल और जहरीले पदार्थ को बाहर निकालने की जोरदार कोशिश को रोग कहा जाता है। दुनिया की सारी चिकित्सा पद्धतियों में अब यह माना जाने लगा है कि रोगी होने पर शरीर खुद ही निरोगी होने की कोशिश करता है, दूसरे किसी तरह की चिकित्सा सिर्फ उसकी मदद करती है। रोगों को दूर करने के इस सुनहरे सिद्धांत को समझने के बाद इस बारे में कोई शक ही नहीं रह जाता कि रोगों के कारण शरीर में जमा मल को दूर करने के लिए `उपवास´ सबसे अच्छा और जरूरी साधन है। उपवास का मतलब ही होता है शरीर की हर तरह की सफाई होना जिसमें खून की खराबी आदि आते हैं।
उपवास रखने के दौरान व्यक्ति जो ऑक्सीजन लेता है वह पहले के पचे हुए और बिना पचे हुए भोजन तथा शरीर के जहर या मल को धीरे-धीरे समाप्त कर देता है। इसी वजह से रोग अपने आप ही ठीक हो जाता है। मनुष्य का शरीर 5 तत्वों से मिलकर बना हुआ है, जिसमें आकाश तत्व सबसे ज्यादा प्रमुख है। उपवास से शरीर को आकाश तत्व की यह शक्ति प्राप्त होती है। इस नज़रिये से भी रोगों को दूर करने के लिए उपवास सबसे ज्यादा महत्व रखता है।
बुखार, पेचिश, दस्त, सर्दी-खांसी, फोड़े, चेचक आदि रोग बहुत ही तेज रोग कहलाते हैं। इस तरह के रोगों में शुरू से उपवास रखना बहुत ज्यादा लाभदायक साबित होता है। बार-बार पेशाब आना, दमा, गठिया, भोजन का न पचना, कब्ज, मोटापा आदि पुराने रोग कहलाते हैं। इस प्रकार के रोगों की चिकित्सा रोजाना के भोजन से शुरू करनी चाहिए और उसके आखिरी में रोगी को लंबा उपवास या छोटे-छोटे बहुत सारे उपवास करने चाहिए। पुराने रोगों में रोगी की शारीरिक हालत ऐसी नहीं रहती, जो शुरुआत में उपवास रखने के लिए सही हो। इस तरह का एक रोग और होता है जिसे मारक रोग कहा जाता है जैसे- टी.बी. रोग। ऐसे रोगों में रोगी की जीवनीशक्ति इतनी ज्यादा कमजोर हो जाती है कि उसका दुबारा सही होना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल तो जरूर होता है। इन रोगों में जब तक मृत्यु का दिन नहीं आ जाता तब तक कोई भी चिकित्सा रोगी को सिर्फ थोड़ा सा आराम ही दे सकती है। वैसे तो ऐसे रोगी को उपवास नहीं करना चाहिए, लेकिन अगर उपवास कराना ही हो तो ज्यादा से ज्यादा एक दिन का ही उपवास कराना चाहिए। इस तरह अगर शरीर का कोई अंग बिल्कुल बेकार हो जाए तो वह भी उपवास से ठीक नहीं होता है।
जानकारी-
किसी-किसी रोग को छोड़कर बाकी सारे रोगों में उपवास बहुत ही ज्यादा लाभ करता है। ऐसा शायद न के बराबर रोग होगा जिसमें छोटा या लंबा उपवास असर न करता हो, बल्कि किसी-किसी रोग में तो उपवास न कराने से रोगी की मृत्यु हो जाती है।